बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 13)

बिल्लेसुर ने जमादार को उड़ी निगाह से देखा। 


साथ आरज़ू मिन्नत। जमादार मुस्कराये। 

कहा, 'बिल्लेसुर, तुम नौकर नहीं हो सकते, लेकिन कोई-न-कोई सिपाही छुट्टी पर रहता है, जगह तुम्हें मिलती रहेगी, बिना तनख़्वाह की छुट्टी वाले की तनख़्वाह भी।'

बिल्लेसुर तरक़्क़ी की सोचकर मुस्कराये।

एक साल बीत गया।

(4)
सत्तीदीन की स्त्री को आये कई साल हो गये, उन्होंने जगन्नाथजी के दर्शन नहीं किये। 

पैसा पास न था। 

एक दिन जमादार से बोलीं, 'जमादार, पैसा तो पास है, लेकिन लड़का बच्चा कोई नहीं। 

हमारे-तुम्हारे बाद पैसा अकारथ जाएगा। 

इतने दिन आये हुए, अभी जगन्नाथजी के दर्शन नहीं हुए।

 अबके सोचती हूँ, बाबा के दर्शन करूँ और कहूँ, बाबा मेरी गोद भर दो तो तुम्हारे चरणों पर लोटकर तुम्हारी एक सौ एक रुपये की शिरनी चढ़ाऊँ। 

मेरा जी कहता है, बाबा मेरी मनोकामना पूरी करेंगे। 

देश-देश के लोग जाते हैं, मुँहमाँगा वरदान उन्हें मिलता है, भगवान ही हैं––अरे हाँ––जो कर, थोड़ा। फिर न जाने क्या सोचकर सत्तीदीन की स्त्री फूट-फूटकर रोने लगीं, फिर अपने हाथ आँसू पोंछकर हिचकियाँ लेती हुई बोलीं, 'मुझे सब सुख है।


 जैसा अच्छा वर मिला, वैसा अच्छा घर; धन है, मान है, गहने है, कपड़े हैं, दूध से भरी हूँ, लेकिन ऊँ हूँ हूँ––'फिर रोदन, यानी पूत नहीं।

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